लक्ष्मी-दरिद्रा की कथा

धर्मशास्त्र के मतानुसार लक्ष्मी दरिद्रा की कथा हैं। लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।

लक्ष्मी  दरिद्रा की कथा
लक्ष्मी  दरिद्रा की कथा


क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।

जगत्पति भगवान विष्णु ने जगत को दो प्रकार का बनाया है। भगवान विष्णु ने ब्राह्मणों, वेदों, सनातन वैदिक धर्म, श्री तथा पद्मा लक्ष्मी की उत्पत्ति करके एक भाग किया और अशुभ ज्येष्ठा अलक्ष्मी, वेद विरोधी अधम मनुष्यों तथा अधर्म का निर्माण करके दूसरा भाग बनाया।

अलक्ष्मी (ज्येष्ठा, दरिद्रा) तथा लक्ष्मी का प्रादुर्भाव

समस्त देवताओं व राक्षसों ने मन्दराचल पर्वत को मथानी, कच्छप को आधार और शेषनाग को मथानी की रस्सी बनाकर समुद्र मन्थन किया। उसके परिणामस्वरूप क्षीरसागर से सबसे पहले भयंकर ज्वालाओं से युक्त कालकूट विष निकला जिसके प्रभाव से तीनों लोक जलने लगे। भगवान विष्णु ने लोककल्याण के लिए शिव जी से प्रार्थना की और शिव जी ने हलाहल विष को कण्ठ में धारण कर लिया।

पुन: समुद्र-मंथन होने पर कामधेनु, उच्चै:श्रवा नामक अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ नामक पद्मरागमणि, कल्पवृक्ष, व अप्सराएं प्रकट हुईं। फिर लक्ष्मी जी प्रकट हुई। उसके बाद वारुणी देवी (मदिरा), चन्द्रमा, पारिजात, पांचजन्य शंख, तदनन्तर समुद्र-मंथन से हाथ में अमृत का कलश लिए धन्वतरि प्रकट हुए।

श्री लिंग महापुराण के अनुसार समुद्र मंथन में महाभयंकर विष निकलने के बाद ज्येष्ठा अशुभ लक्ष्मी उत्पन्न हुईं फिर विष्णुपत्नी पद्मा लक्ष्मी प्रकट हुईं। लक्ष्मी जी से पहले प्रादुर्भूत होने के कारण अलक्ष्मी ज्येष्ठा कही गयीं हैं।

अलक्ष्मी (दरिद्रा, ज्येष्ठा देवी)

ततो ज्येष्ठा समुत्पन्ना काषायाम्बरधारिणी।
पिंगकेशा रक्तनेत्रा कूष्माण्डसदृशस्तनी।।
अतिवृद्धा दन्तहीना ललज्जिह्वा घटोदरी।
यां दृष्ट्वैव च लोकोऽयं समुद्विग्न: प्रजायते।।

समुद्रमंथन से काषायवस्त्रधारिणी, पिंगल केशवाली, लाल नेत्रों वाली, कूष्माण्ड के समान स्तनवाली, अत्यन्त बूढ़ी, दन्तहीन तथा चंचल जिह्वा को बाहर निकाले हुए, घट के समान पेट वाली एक ऐसी ज्येष्ठा नाम वाली देवी उत्पन्न हुईं, जिन्हें देखकर सारा संसार घबरा गया।

क्षीरोदतनया, पद्मा लक्ष्मी
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी।
गम्भीरावर्तनाभिस्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।।
या लक्ष्मीर्दिव्यरूपैर्मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:।
सा नित्यं पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता।।

उसके बाद तिरछे नेत्रों वाली, सुन्दरता की खान, पतली कमर वाली, सुवर्ण के समान रंग वाली, क्षीरसमुद्र के समान श्वेत साड़ी पहने हुए तथा दोनों हाथों में कमल की माला लिए, खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान, भगवान की नित्य शक्ति ‘क्षीरोदतनया’ लक्ष्मी उत्पन्न हुईं। उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा देखकर देवता और दैत्य दोनों ही मोहित हो गए।

नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम:।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्म्यै नमो नम:।।

लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु के साथ अपने विवाह से पहले कहा कि बड़ी बहन का विवाह हुए बिना छोटी बहन का विवाह शास्त्रसम्मत नहीं है। तब भगवान विष्णु ने दु:सह ऋषि को समझा-बुझाकर ज्येष्ठा से विवाह करने के लिए मना लिया।

कार्तिकमास की द्वादशी तिथि को पिता समुद्र ने दरिद्रा देवी का कन्यादान कर दिया। विवाह के बाद दु:सह ऋषि जब दरिद्रा को लेकर अपने आश्रम पर आए तो उनके आश्रम में वेदमन्त्र गुंजायमान हो रहे थे। वहां से ज्येष्ठा दोनों कान बंद कर भागने लगी।

यह देखकर दु:सह मुनि उद्विग्न हो गये क्योंकि उन दिनों सब जगह धर्म की चर्चा और पुण्यकार्य हुआ करते थे। सब जगह वेदमन्त्रों और भगवान के गुणगान से बचकर भागते-भागते दरिद्रा थक गई। तब दरिद्रा ने मुनि से कहा–’जहां वेदध्वनि, अतिथि-सत्कार, यज्ञ-दान, भस्म लगाए लोग आदि हों, वहां मेरा निवास नहीं हो सकता। अत: आप मुझे किसी ऐसे स्थान पर ले चलिए जहां इन कार्यों के विपरीत कार्य होता हो।

दु:सह मुनि उसे निर्जन वन में ले गए। वन में दु:सह मुनि को मार्कण्डेय ऋषि मिले। दु:सह मुनि ने मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि इस भार्या के साथ मैं कहां रहूं और कहां न रहूं?

दरिद्रा के प्रवेश करने के स्थान

मार्कण्डेय ऋषि ने दु:सह मुनि से कहा– जिसके यहां शिवलिंग का पूजन न होता हो तथा जिसके यहां जप आदि न होते हों बल्कि रुद्रभक्ति की निन्दा होती हो, वहीं पर तुम निर्भय होकर घुस जाना।

लिंगार्चनं यस्य नास्ति यस्य नास्ति जपादिकम्।
रुद्रभक्तिर्विनिन्दा च तत्रैव विश निर्भय:।।

जहां पति-पत्नी परस्पर झगड़ा करते हों,  घर में रात्रि के समय लोग झगड़ा करते हों,  जो लोग बच्चों को न देकर स्वयं भोज्य पदार्थ खा लेते हों,  जो स्नान नहीं करते, दांत-मुख साफ नहीं करते,  गंदे कपड़े पहनते, संध्याकाल में सोते व खाते हों,  जुआ खेलते हों,  ब्राह्मण के धन का हरण करते हों, परायी स्त्री से सम्बन्ध रखते हों,  हाथ-पैर न धोते हों, उस घर में तुम दोनों घुस जाओ।

दरिद्रा से बचने के लिए घरों में न लगाये जाने वाले वृक्ष

जिस घर में  कांटेदार, दूधवाले, पलाश के व निम्ब के वृक्ष हों,सेम की लता हो, दोपहरिया, तगर तथा अपराजिता के फूल का पेड़ हो, वे घर तुम दोनों के रहने के योग्य है। जिस घर में जटामांसी, बहुला, अजमोदा, केला, ताड़, तमाल, भिलाव, इमली, कदम्ब, खैर, बरगद, पीपल, आम, गूलर तथा कटहल के पेड़ हों वहां तुम दरिद्रा के साथ घुस जाया करो। जिस घर में व बगीचे में कौवों का निवास हो उसके यहां तुम पत्नी सहित निवास करो। जिस घर में प्रेतरूपा काली प्रतिमा व भैरव-मूर्ति हो, वहां तुम पत्नी सहित निवास करो।

दरिद्रा के प्रवेश न करने के स्थान

मार्कण्डेय जी ने दु:सह मुनि को  कहा– जहां नारायण व रुद्र के भक्त हों, भस्म लगाने वाले लोग हों,  भगवान का कीर्तन होता हो,  घर में भगवान की मूर्ति व गाएं हों उस घर में तुम दोनों मत घुसना।  जो लोग नित्य वेदाभ्यास में संलग्न हों,  नित्यकर्म में तत्पर हों तथा वासुदेव की पूजा में रत हों, उन्हें दूर से ही त्याग देना

वेदाभ्यासरता नित्यं नित्यकर्मपरायणा:।
वासुदेवार्चनरता दूरतस्तान् विसर्जयेत्।।

तथा  जो लोग वैदिकों, ब्राह्मणों, गौओं, गुरुओं, अतिथियों तथा रुद्रभक्तों की नित्य पूजा करते हैं, उनके पास मत जाना।

यह कहकर मार्कण्डेय ऋषि चले गए। तब दु:सह मुनि ने दरिद्रा को एक पीपल के मूल में बिठाकर कहा कि मैं तुम्हारे लिए रसातल जाकर उपयुक्त आवास की खोज करता हूँ। दरिद्रा ने कहा– तब तक मैं खाऊंगी क्या? मुनि ने कहा– तुम्हें प्रवेश के स्थान तो मालूम हैं, वहां घुसकर खा-पी लेना। लेकिन जो स्त्री तुम्हारी पुष्प व धूप से पूजा करती हो, उसके घर में मत घुसना।

यह कहकर मुनि बिल मार्ग से रसातल में चले गए। लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें कोई स्थान नहीं मिला। कई दिनों तक पीपल के मूल में बैठी रहने से भूख-प्यास से व्याकुल होकर दरिद्रा रोने लगीं। उनके रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। उनके रोने की आवाज को जब उनकी छोटी बहन लक्ष्मीजी ने सुना तो वे भगवान विष्णु के साथ उनसे मिलने आईं। दरिद्रा ने भगवान विष्णु से कहा–’मेरे पति रसातल में चले गए है, मैं अनाथ हो गई हूँ, मेरी जीविका का प्रबन्ध कर दीजिए।

भगवान विष्णु ने कहा ’हे दरिद्रे! जो माता पार्वती, शंकरजी व मेरे भक्तों की निन्दा करते हैं; शंकरजी की निन्दा कर मेरी पूजा करते हैं, उनके धन पर तुम्हारा अधिकार है। तुम सदा पीपल (अश्वत्थ) वृक्ष के मूल में निवास करो। तुमसे मिलने के लिए मैं लक्ष्मी के साथ प्रत्येक शनिवार को यहां आऊंगा और उस दिन जो अश्वत्थ वृक्ष का पूजन करेगा, मैं उसके घर लक्ष्मी के साथ निवास करुंगा।’ उस दिन से दरिद्रादेवी पीपल के नीचे निवास करने लगीं। रविवार को अश्वत्थ/पीपल वृक्ष की पूजा नहीं करनी चाहिए।

देवताओं द्वारा प्रदत्त दरिद्रा को निवास योग्य स्थान

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में बताया गया है– जिसके घर में सदा कलह होता हो, जो झूठ और कड़वे वचन बोलते हैं,  जो मलिन बुद्धि वाले हैं व संध्या के समय सोते व भोजन करते हैं, बहुत भोजन करते हैं, मद्यपान में लगे रहते हैं, बिना पैर धोये जो आचमन या भोजन करते हैं,  बालू, नमक या कोयले से दांत साफ करते हैं, जिनके घर में कपाल, हड्डी, केश व भूसी की आग जलती हो, जो छत्राक (कुकुरमुत्ता) तथा सड़ा हुआ बेल खाते हैं,  जहां गुरु, देवता, पितर और अतिथियों का पूजन तथा यज्ञदान न होता हो, ब्राह्मण, सज्जन व वृद्धों की पूजा न होती हो, जहां द्यूतक्रीडा होती हो, जो दूसरों के धन व स्त्री का अपहरण करते हों, वहां अशुभ दरिद्रे तुम सदा निवास करना।

लक्ष्मी जी द्वारा रुक्मिणी जी को बताये गए अपने निवास स्थान

दीपावली की रात्रि में विष्णुप्रिया लक्ष्मी गृहस्थों के घरों में विचरण कर यह देखती हैं कि हमारे निवास-योग्य घर कौन-कौन से हैं? महाभारत के अनुशासनपर्व में रुक्मिणीजी के पूछने पर कि हे देवि! आप किन-किन पर कृपा करती हैं, स्वयं लक्ष्मीजी कहती हैं–आमलक फल (आंवला), गोमय, शंख, श्वेत वस्त्र, चन्द्र, सवारी, कन्या, आभूषण, यज्ञ, जल से पूर्ण मेघ, फूले हुए कमल, शरद् ऋतु के नक्षत्र, हाथी, गायों के रहने के स्थान, उत्सव मन्दिर, आसन, खिले हुए कमलों से सुशोभित तालाब, मतवाले हाथी, सांड, राजा, सिंहासन, सज्जन पुरुष, विद्वान ब्राह्मण, प्रजापालक क्षत्रिय, खेती करने वाले वैश्य तथा सेवापरायण शूद्र मेरे प्रधान निवास स्थान हैं।

लक्ष्मीजी ने देवराज इन्द्र को बताया कि–भूमि (वित्त), जल (तीर्थादि), अग्नि (यज्ञादि) एवं विद्या (ज्ञान)–ये चार स्थान मुझे प्रिय हैं। सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम एवं धर्म जहां वास करते हैं, वहां मेरा निवास रहता है।

जिस स्थान पर श्रीहरि, श्रीकृष्ण की चर्चा होती है,  जहां तुलसी शालिग्राम की पूजा, शिवलिंग व दुर्गा का आराधन होता है वहां पद्ममुखी लक्ष्मी सदा विराजमान रहती हैं।

मैं उन पुरुषों के घरों में निवास करती हूँ  जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, सच्चरित्र, कर्तव्यपरायण, अक्रोधी, भक्त, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, सदाचरण में लीन व गुरुसेवा में निरत रहते हैं।

इसी प्रकार उन स्त्रियों के घर मुझे प्रिय हैं जो क्षमाशील, शीलवती, सौभाग्यवती, गुणवती, पतिपरायणा, सद्गुणसम्पन्ना होती हैं व जिन्हें देखकर सबका चित्त प्रसन्न हो जाता है, जो देवताओं, गौओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में तत्पर रहती हैं तथा घर में धान्य के संग्रह में तत्पर रहती हैं।

लक्ष्मीजी किन लोगों के घरों को छोड़कर चली जाती हैं।

लक्ष्मीजी ने देवराज इन्द्र से कहा– जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर, गुरुजनों के दोष देखने वाला है, बात-बात में खिन्न हो उठते हैं, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं और ऊपर से कुछ और दिखाते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं निवास नहीं करती। जो नखों से भूमि को कुरेदता और तृण तोड़ता है, सिर पर तेल लगाकर उसी हाथ से दूसरे अंग का स्पर्श करता है,  अपने किसी अंग को बाजे की तरह बजाता है, निरन्तर बोलता रहता है, जो भगवान के नाम का व अपनी कन्या का विक्रय करता है, जहां बालकों के देखते रहने पर उन्हें बिना दिये ही लोग भक्ष्य पदार्थ स्वयं खा जाते हैं, जिसके यहां अतिथि को भोजन नहीं कराया जाता, ब्राह्मणों से द्वेषभाव रखता है,  दिन में शयन करता है, उसके घर से लक्ष्मी रुष्ट होकर चली जाती है।

वे स्त्रियां भी लक्ष्मीजी को प्रिय नहीं हैं जो अपवित्र, चटोरी, निर्लज्ज, अधीर, झगड़ालू व अधिक सोती हैं, जो अपनी गृहस्थी के सामानों की चिन्ता नहीं करतीं, बिना सोचे-बिचारे काम करती हैं, पति के प्रतिकूल बोलती हैं और  दूसरों के घरों में घूमने-फिरनें में आसक्ति रखती हैं, घर की मान-मर्यादा को भंग करने वाली हैं, जो स्त्रियां देहशुद्धि से रहित व सभी (भक्ष्याभक्ष्य) पदार्थों को खाने के लिए तत्पर रहती हों–उन्हें मैं त्याग देती हूँ। इन दुर्गुणों के होने पर भले ही कितनी ही लक्ष्मी-पूजा की जाए, उनके घर में लक्ष्मीजी का निवास नहीं हो सकता।

लक्ष्मीजी द्वारा असुर राज बलि और प्रह्लाद का त्याग

महाभारत के शान्तिपर्व में कथा है कि एक बार असुरराज प्रह्लाद ने एक ब्राह्मण को अपना शील प्रदान कर दिया। इस कारण उनका तेज, धर्म, सत्य, व्रत और अंत में लक्ष्मी भी साथ छोड़कर चली गयीं। प्रह्लादजी की प्रार्थना पर लक्ष्मीजी ने उन्हें दर्शन देकर कहा–’शील और चारित्र्य मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं, इसी कारण शीलवान व्यक्ति के यहां रहना मुझे अच्छा लगता है। जिसके पास शील नहीं है, वहां मेरा नहीं, अपितु दरिद्रा का निवास होता है।

एक बार दानवीर बलि को भी लक्ष्मीजी ने इसलिए त्याग दिया कि उन्होंने उच्छिष्टभक्षण किया था और देवताओं व ब्राह्मणों का विरोध किया था।

अतएव मानव को अपना घर ऐसा बनाना चाहिए जो लक्ष्मीजी के मनोनुकूल हो और जहां पहुंचकर वे किसी अन्य जगह जाने का विचार मन में न लावें। साथ ही लक्ष्मी प्राप्ति मनुष्य के उत्कृष्ट पुरुषार्थ पर भी निर्भर है क्योंकि कहा गया है–

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी:

आपका मंगल हो, प्रभु कल्याण करे

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