गृह में देव प्रतिमा अन्य विचारदि,अंगुष्ठ प्रमाण में ११ अंगुल तक ही शुभ है। अधिकाधिक आजकल २१ अंगुल का प्रचलन देखने को मिल रहा है जो की अनुचित है। प्रचलन शास्त्र सम्मत हो फलदायक होता हैं ।
देव प्रतिमा प्रतिष्ठा विचार
घर मे कितनी लिंग का पुजा करे
शिवा अर्चन पूजन और दिशा विचार
घर मे मूर्ति पूजन
आठ प्रकार के प्रतिमा विचार
- शिला,लकड़ी (महुआ का विशेष महत्व है)
- लौह (लोहा)
- लेप्य (पुती हुई)
- लेख्य ( चित्रित किया हुआ)
- सिकाता ( रेत)
- मनोमयी (मानसिक रूप से,ध्यानाविष्ट )
- तथा मणि की य़ह आठ प्रकार की प्रतिमा कहीं गई हैं ।
- पांच रात्रे मृत्तिका,दारूकाष्ट,लाक्षा (लाख) गोमेद (गोबर) तथा मोम की प्रतिमा का निर्माण नही करनी चाहिए ।
विशेष लिंगे पूजन विचार
भविष्ये पुराण -
प्रतिमादिनां नित्यस्नाने विचारः -
(गौतमी तंत्रे) - लिंङ्ग मस्तक का विस्तार
- एवं ऊँचाई बराबर होनी चाहिये
- गौलाई तीन गुणा होनी चाहिये
- उसी प्रकार पीठ जलधारी की व्यवस्था करें ।
- प्रणालिका (मोरी) की व्यवस्था भी यथावत्
- उत्तर दिशा मे करनी चाहिए।
- परन्तु अगर हम ज्यामिति सिद्धांत को देखते है तो
- १० से.मी. ऊँचे शिव लिङ्ग की गोलाई ३१ से.मी.
- ४ मिलि मीटर (त्रिगुणा से कुछ अधिक) होगी ।
दीपक विचार
पुष्प से संबंधित विचार
पूजावसाने विविध विषयम्
हरितालादि - अष्टद्रव्यं हरताल, मन, शिला, अभ्रक, कृष्णाञ्जन, माक्षिक, कासी, स्वर्णगौरिक ( कहीं कहीं सीसा का भी उल्लेख मिलता हैं )
अष्टबीजम् - तिल, यव, मूंग, गेंहू (गोधूम), नीवार, श्यामा, सरसों, ब्रीहि ।
गोधूम - गाय को अन्न खिलावें उसके गोमय में जो साबुत
अन्न निकले उसका संग्रह कर साफ करके अन्न प्राप्त करें उसको गोधूम कहते है।
गोधूमान्न - इस गोधूम से जो सत्तू बनाया जाता है उसे गोधूमान्न कहते है।
अष्ठ्यातु - स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोह, कासी, पीतल, कतीर(सीसा)
पंचरत्न - कनक, कुलिश (माणक), नीलम, पद्मराग (पुखराज), मोती।
सप्तमृत्तिका - राजशाला, अश्वशाला, गौशाला, वाराहखात, तुलसीस्थल, बाल्मीक (चींटियों के बिल की) नदी या चौराहा संगम ।
सर्वोषधी - मुरा, जटामांशी, बच, कुष्ठ, शैलेय, हरिद्रा, दारूहल्दी, सूठी, चम्पक एवं मुस्ता ।
पल्लवाः - बड़, पीपल, आम, जामुन, गूलर या अशोक
पद्मकेसर - शमी, पलाश, सारि, हरिद्रा, सरसों, प्रियंगु कालाजन ।
महौषधिः - गोरोचन, नागकेसर, सहदेवी, नाहर कांटी, (सिंही, व्याघ्रि बला) शङ्खपुष्पी, बच, अवर्चला, ऋद्धि, वृद्धि, शतावरी, सूर्यावर्ता, अपराजिता, विष्णुकांता ।
सिद्धार्थ, भस्म दुर्वाकुर,एवं अक्षत
ये विघ्नी का नाश करते (शारदा
तिलक)
षडांगधूप - शर्करा, मधु, मुखा, घृत, चन्दन,
गुग्गल, अगरु, शैलज,सरलकाष्ठ
शिलारस श्वेत सरसों ।
षोड़शांग धूप - हरड़, गुड, कूड, जटामांशी,
देवदारू, लाक्षा, अगरू, तेजपत्र,
सरलकाष्ठ, नखी, मुखा, गुग्गल,
चंदन, बाला, चूना और शैलज
दशांग धूप - (मदनरत्ने) पड़भाग कुष्ठं द्विगुणो
गुडश्च लाक्षात्रयं पंचनखस्य भागाः
हरीतकी सर्जरस समांशं भागेक
मेकं त्रिलवं शिलाजम् । घनस्य
चत्वारि पुरस्य चैको धूपो दशाङ्गः
कथितो मुनीन्द्रैः ।
(वामन पुराणे)
रुहिकाख्यं कणं दारू सिह्लकं सागुरु सितम् ।
(तंत्रसारे) - पोशांग धूप
गुग्गुलः सरल दारूपत्र म लय - सभवम्।ह्नीबेरमगुरु कुष्टं गुरू सर्जरसे घनम् ॥
शब्दार्थ सिद्धार्थ (सरसों), शकृत्क्षीर (गोमय), रजनी (हरिद्रा), बालक (ह्नीबेर), चूतपल्लवा:(आम्रपल्लवा), शिखिपत्र (सर्पकंचुकी),
अगत्वचः (कस्तुरी), सरल (देवदारू), ब्रह्मसाल (पारसपीपल), कारवी (सौफ), गन्धिनी (तालीसपत्र), चौर (कचूर), रोचन (गोरोचन), कपियुता (लालचंदन), सेव्यकाः (उशीर), धन (मोधा), ऐला (इलायची), त्वच (तज), नख (नखनखी), मासी (जटामांसी), जल (हाबूबेर), जाति (जावित्रि), लघ (कृष्णागरु)
देव्याधूप - चन्दन, अगर, कस्तुरी, श्वेत सरसों, कपूर, शहद, गौघृत, केसर, गुग्गल, मुलैठी, सितामिश्री, लोहवान।
गंधदाने अंगुलीविचारः - अनामिका से देवता एवं ऋर्षियों के पितृ कार्ये तर्जनी से स्वयं के मध्यमा अगुली से गंधानुलेपन करें।
गंधवाने मुद्रा - मध्यमा अनामिका तथा अंगुष्ठ से संयोग अग्रभाग से मुद्रा दिखावें ।
पंचामृतस्नानफलम् (वृहद्नारदीये)
पय स्नान से सौ अश्वमेघ का फल, दधि (क्षीर) स्नान से सौभाग्य एवं मिष्ठान्न की प्राप्ति। घृत स्नान से मृत्युलोक में राजा होवे एवं स्वर्गादि सुख प्राप्त होवे। मधु (शहद) के स्नान से राज्य के साथ गज रथ अश्वादि बल प्राप्त होवे । पंचामृत से भगवान को स्नान कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता। विष्णु का शङ्ख या तीर्थोदक से स्नान अर्घ्य देने से अपने कुल को तारने का फल प्राप्त होवे।पंचामृत परिमाण कथनम् (हेमाद्रि)
शिवधर्म का वचन है कि स्नान सौपल (सौ तोला), अभ्यंग पचीसपल से, महास्नान २ हजार पल से होता है। लिङ्ग में पच्चीस पल से अभ्यङ्ग करावें। शिव को सौ पल घी से स्नान कहा है ।सौ पल ही मधु, दूध, दधि कहा है। डेढ हजार पल द्वारा ईख के रस से स्नान करा कर गर्म जल से स्नान करावें। (पल का अर्थ एक तोला से है)
(स्कंद पुराण) विष्णु आदि में दूध से दश गुणा दधि, दधि से सौ गुणा धृत से तथा घृत ( से दश गुणा मधु एवं मधु से दश गुणा ईख का रस होना चाहिये।
मूर्ति प्रतिष्ठापु कलशचक्र विचार :
नूतन प्रतिमा का गर्भगृह में प्रतिष्ठा स्थापन एक गृहप्रवेश की तरह अधिवास है, अत: नूतन मूर्ति प्रतिष्ठा के समय कलश चक्र शुद्ध हो तो अति उत्तम होता है।मालाविचारः (मंत्र खंडे)
स्फटिकी मौक्तिकी वापि प्रोक्तव्या सितसूत्रकैः।अरिस्टपुत्र जीवैश्चाङ्खै प्रवालैः सहस्त्रकम्।।
स्फटिकैलक्ष साहस्रं मौक्तिकैर्लक्ष मेव च।
दशलक्षण राजताक्षैः सौवर्णैः कोटिरूच्यते ।।
कुशग्रंथ्य च रुद्राक्षैरनन्तगुणितो भवेत्।।
कामनाभेदेन मालाविचारः (कालिका पुराणे)
रुद्राक्षमालिका सूते जापेन स्वमनोरथान् ।पद्माक्षैर्विहिता माला शत्रुनां नाशिनीमता ।।
कुशग्रंथिमयी माला सर्वपापप्रणाशिनी ।
पुत्रजीवफलैः क्लृप्ताकुरुते पुत्रसंपदाम् ।।
निर्मिता रूप्यमणिभिर्ज्जप मालेप्सितप्रदा।
प्रवालैर्विहिता माला प्रयेच्छेद्विपुलं धनम् ।।
हिरण्यमयी विरचितामाला कामान्प्रयच्छति ।
(तंत्र राजे)गजदंतैर्गनेश्वरे वैष्णवै:तुलसीमाला ।
त्रिपुरा या जपे शस्ता रुद्राक्षैः रक्तचन्दनैः ।।
(तंत्रांतरे) स्तंभन व बगलामुखी साधना मे हरिद्रा माला, शांति कर्मे श्वेत चंदन, शत्रुनाश एवं उच्चाटन हेतु गर्दभ के दांतो से निर्मित माला, विष्णु उपासना में वैजन्ती माला, लक्ष्मी व काली उपासना में कमलगट्टे की माला। शत्रुनाश हेतु काले मनको की माला भी ग्रहण की जा सकती है,आकर्षण में श्वेत एवं वैजन्ती की माला शुभ हैं। दुर्गा उपासना में रक्तचंदन की माला शुभ होता हैं।
मालामणिसंख्या फलम् (गौतमीये) -
२५ मनको की माला मोक्ष हेतु, १५ की अभिचार हेतु, २७ की सर्वसिद्धि हेतु ग्रहण करें। ३० की धनवृद्धि, ५० की कार्य सिद्धि एवं १०८ मणि की माला सर्वसिद्धि हेतु ग्रहण करें।कामनाभेदेन अंगुलिनियम
(पुरश्चरणदीपिकायाम्) -
माला की मणी को अंगुष्ठ के सहयोग से चलाने से मोक्षप्रद, एवं विद्याप्रद, तर्जनी से शत्रुनाश हो, मध्यमा धन प्राप्ति हेतु, अनामिका शांतिप्रदा, तथा कनिष्ठा आकर्षण हेतु प्रयोग की जाती है।
जप समये विशेष - जप करते समय सुमेरू उलंघन नहीं करे माला को वक्र करके पुनः जपारंभ करे। जप के अंत में माला को कर्ण से या अन्य उच्च भाग से स्पर्श करे । माला को आच्छादित रखे (मालां च मुद्रां च गुरोरपिन दर्शयेत् ) माला को हिलाने कंपन करने से सिद्धि हानि होती हैं, माला के बजने से रोग, बार-बार दूसरे हाथ से स्पर्श (करभ्रष्ट) करने से विनाश, माला को पूरी होने से पहले छोडना जप निष्फल तथा सूत्र के टूटने से हानि अपमृत्युभय होता हैं।