प्रेरणादायक संग्रह संस्कृत श्लोक

प्रेरणादायक ज्ञान वर्धक संस्कृत श्लोक

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।

अर्थ – व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है, व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है। क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।। 

अर्थ – व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।

ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।

अर्थ – लेना, देना, खाना, खिलाना, रहस्य बताना और उन्हें सुनना ये सभी 6 प्रेम के लक्षण है।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अर्थ – अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना। ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।

वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।

अर्थ – जिस मनुष्य की वाणी मीठी हो यानि जो मधुर भाषी हो, जिसका काम परिश्रम से भरा हो मतलब जो मेहनती हो, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त हो यानि जो दानी हो, उसका जीवन सफ़ल है।

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च द्विविधं कर्म वैदिकम्।
ज्ञानपूर्वा निवृत्तिः स्यात्प्रवृत्तिर्वर्ततेऽन्यथा
निवृत्तिं सेवमानस्तु याति तत्परमं पदम्।
तस्मान्निवृत्तं संसेव्यमन्यथा संसरेत्पुनः

अर्थ – प्रवृत्ति तथा निवृत्ति ही दो वैदिक कर्म है। उनमें ज्ञानयुक्त कर्म का आचरण करने से प्राणिगण को निवृत्ति (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। उससे जो अन्यथा कर्म है, उससे प्रवृत्ति की प्राप्ति होती है। यह कहा गया है कि निवृत्तिपरक कर्म के आचरण से उत्तम पद मिलता है। सदा निवृत्तिपरक कर्म का ही आचरण करना चाहिये। अन्यथा संसार रूप जन्म-मरण का व्यास सम्भव नहीं है।

धर्मेण धार्यते सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
अनादिनिधना शक्तिर्नैषा ब्राह्मी द्विजोत्तम ॥
कर्मणा प्राप्यते धर्मो ज्ञानेन च न संशयः ।
तस्माज्ज्ञानेन सहितं कर्मयोगं समाचरेत् ॥

अर्थ – हे द्विजोत्तम स्थावर जंगमरूप समस्त जगत् धर्म पर ही आश्रित होकर स्थित है। ब्रह्म की अनादि शक्ति इसे धारण नहीं करती। ज्ञानयुक्त कर्म से धर्म की प्राप्ति होती है। यह निःसन्दिग्ध है। अतएव ज्ञानपूर्वक कर्म प्रारम्भ करें।

आपका मंगल हो, प्रभु कल्याण करे

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