अद्भुत रामायण राजा अम्बरीष की नारायण से वर प्राप्ति

Raja Ambarish Ki Narayan Se Var Prapti

भारद्वाज  श्रृणुष्वाथ   रामचन्द्रस्य  धीमतः।
जन्मनः कारणं विप्र    इक्ष्वाकुकुलवारीधौ ॥१॥
सीतायाश्च महादेव्याः पृथिव्यां जन्महेतुकम्।
तत्र. राम कथा  मादौ  वक्ष्यामि  मुनिपुङ्गव ॥२॥
अद्भुत रामायण राजा अम्बरीष
अद्भुत रामायण राजा अम्बरीष


हे भरद्वाज ! इक्ष्वाकुकुल-समुद्र में श्रीरामचन्द्र का जिस प्रकार जन्म हुआ उसे और महादेवी सीता के भी पृथिवी पर जन्म लेने के कारण को सुनिये। हे मुनिपुङ्गव ! उसमें से मैं सर्वप्रथम श्रीरामकथा का वर्णन करता हूँ।

श्रूयतां मुनिशार्दूले अम्बरीषकथाश्रयम् ।
पुरुषोत्तममाहात्म्यं सर्वपापहरं परम् ॥३॥

हे मुनिशार्दूल! आप हमसे अम्बरीष की कथा का श्रवण कीजिये यह पुरोषत्तम माहात्म्य सब पापों का हरण करने वाला है।


त्रिशंकोर्दयिता भार्या सर्वलक्षणशोभिता ।
अम्बरीषस्य जननी नित्यै शोचसमन्विता॥४॥

त्रिशंकु की प्रिय भार्या सब लक्षणों से सुशोभित, अम्बरीष की जननी और नित्य शौचसमन्वित थी।

योगनिद्रा समारूढं  शेष  पर्यङ्कशायिनम् ।
नारायणं  महात्मानं  ब्रह्माण्डकमलोद्भवम् ॥५॥ 
तमसा कालरुद्राख्यं रजसा कनकाण्डजम् ।
सत्वेन  सर्वगं   विष्णुं  सर्वदेव   नमस्कृतम् ॥६॥

योगनिदा में आरूढ़, शेषशय्या पर शयन करने वाले महात्मा नारायण ब्रह्माण्ड और

कमलोद्भव ( ब्रह्मा ) के निर्माता है। वे तमोगुण से युक्त होने पर कालरुद्र, रजोगुण युक्त होने पर ब्रह्मा, और सतोगुण से युक्त होने पर सर्वदेव नमस्कृत विष्णु-स्वरूप होते हैं।

अर्चयामास  सततं वाङमनः कायवर्तभिः । 
माल्यदामादिकं सर्व स्वयमेव व्यचीकरत् ॥७॥

वह ( त्रिशंकुभार्या ) मन-कर्म-वचन से उन्हीं नारायण की सतत अर्चना तथा माला आदि हाथ में लेकर स्वयं सेवा करती थी।

गंधादिपेषणञ्चैव   धूपद्रव्यदिकं  तथा ।
तत्सर्वं कौतुकाविष्ट स्वयमेव चकार सा॥८॥

गन्धादि का पेषण और धूपद्रव्यादि का भी कार्य वह कौतुकाविष्ट होकर स्वयं ही करती थी।

शुभा  पद्मावती  नित्यं वचो नारायणेति वै।
अनन्तेति च सा नित्यं भाषमाणा यतव्रता ॥९॥

यह शुभलक्षणा पद्मावती नित्य 'नमो नारायणाय का उच्चारण और अनन्त नाम का भी संयम पूर्वक उच्चारण करती थी।

दशवर्ष    सहस्त्राणी    तत्परेणान्तरात्मना ।
अर्चयामास गोविन्दं गन्धपुष्पादिभिः शुभैः ॥१०॥

वह दस सहस्र वर्ष तक अन्तरात्मा से तत्पर होकर गन्ध-पुष्पादि से गोविन्द की अर्चना करती रही।

विष्णुभक्तान्महाभागान् सर्वपापविवरर्जितान् ।
दान   मानार्चनैर्नित्यं    धनै      रत्नैरतोषयत् ॥११॥

सर्वपापों से रहित विष्णु-भक्तों को दान, मान, धन, रत्न आदि से वह नित्य वह नित्य संतुष्ट करती थी ।

ततः कदाचित्सा देवी द्वादश्यां समु पोष्य वै। 
हरेरग्रे    महाभागा   सुष्वाप   पतिना  सह ॥१२॥

एक समय वह देवी द्वादशी व्रत रखते हुए पति के साथ हरि के आगे सो रही थी।


तंत्र    नारायणो   देवस्तामाह   पुरुषोत्तमः । 
किमिच्छसि  वरं भद्रेमत्तः किंब्रूहि भामिनि ॥१३॥ 
सा दृष्टवा तं वरं वव्रे पुत्रस्त्वद्भक्तिमान्भवेत् । 
सार्वभौमो  महातेजाः  स्वकर्मनिरतः शुचिः ॥१४॥

तब पुरुषोत्तम नारायणदेव ने उससे कहा "हे भामिनि! तुम क्या वर चाहती हो ?" उन्हें देख कर उसने यह वर माँगा कि अपनी भक्तिवाला मुझे ऐसा पुत्र दीजिये जो सार्वभौम, महातेजस्वी और अपने कर्म में निरत तथा पवित्र हो।

तथेत्युक्त्वा ददौ  तस्यै फलमेकं जनार्दनः ।
सा प्रबुद्धा फलं दृष्ट्वा भर्त्रे सर्व निवेद्य च ॥१५॥ 
भक्षयामास  संहृष्टा   फल   तद्गतमानसा ।
ततः कालेन सा देवी पुत्रं कुलविवर्द्धनम्  ॥१६॥
असूयत   शुभाचारं   वासुदेव   परायणम् ।
शुभलक्षणसम्पन्न चक्राङ्कित्तमनुत्तमम्   ॥१७॥

उनके यह कहने पर जनार्दन ने उन्हें एक फल दिया। उस फल को देख कर वह जाग उठी और
अपने पति से सब कुछ निवेदन करने के बाद भक्तियुक्त मन से उस फल को प्रसन्नतापूर्वक खा गई तब समय आने पर उस देवी ने एक कुल वर्धन सुन्दर आचरणयुक्त और वासुदेवपरायण पुत्र को उत्पन्न किया जो शुभ लक्षणों से सम्पन्न, चक्राङ्कित और श्रेष्ठ था।

जातंदृष्टवा पितापुत्रं क्रियाः सर्वाश्चकार वै । 
अम्बरीष इति ख्यातो लोके समभवत्प्रभुः ॥१८॥

पुत्र को उत्पन्न हुआ देख कर उसके पिता ने उसके सम्पूर्ण संस्कार सम्पन्न किये। वही पुत्र लोक में अम्बरीष के नाम से विख्यात हुआ।

पितर्युपरते  श्रीमानभिषिक्तो  महात्मभिः ।
मंत्रीष्वाधाय राज्यं च तप उग्रं चकार सः ।।१९।।
संवत्सर    सहस्रं    जगनारायण   प्रभुम् । 
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थं   सूर्यमण्डलमध्यगम् ।।२०।।

पिता के उपरत होने पर उन महात्मा का राज्याभिषेक हुआ। तथ उन्होंने (अम्बरीष में) मन्त्रियों को राज्य सौंप कर उग्र तप किया। उन्होंने सहस्र संवत्सरों तक हृतपुद्मस्थ सूर्य मण्डल के मध्य प्रभु नारायण का जप किया।


शंखचक्रगदापद्मं    धारयन्तं     चतुर्भुजम् ।
शुद्धजाम्बूनदनिभं ब्रह्माविष्णुशिवात्मकम ॥२१॥
सर्वा भरण  संयुक्तं  पीताम्बर  धरं   प्रभुम् ।
श्रीवत्सवक्षसं    देवं    पुरुषं   पुरुषोत्तमम् ॥२२॥
ततो        गरुडमारुह्य      सर्वदेवैरभिष्टुतः ।
आजगाम   विश्वात्मा    सर्वलोकनमस्कृतः ॥२३॥
ऐरावतभिवाचिन्त्य  कृत्वा  वै  गरुडं   हरिः ।
स्वयं   शक्र   इवासीनस्तमाह   नृपसत्तमम् ।।२४।।

तब शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करने वाले चतुर्भुज, शुद्धसुवर्ण के समान आभावाले ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मक सम्पूर्ण आभूषणों से युक्त पीताम्बरधारी प्रभु, श्रीवत्स को वक्षःस्थल में धारण किये हुये, गरुड़ पर आरूद, सर्वदेवों से स्तुत, और सर्वलोकों से नमस्कृत, विश्वात्मा, पुरुषोत्तम नारायणदेव वहाँ आये। तदनन्तर गरुड़ को ऐरावत के समान करके तथा स्वयं इन्द्र का रूप धारण कर ये उन नृपश्रेष्ठ के निकट आकर बोले :

इन्द्रोऽहमस्मि भद्रं ते किं ददामि तवाद्य वै ।
सर्वलोकेश्वरोऽहं  त्वां  रक्षितुं   समुपागतः ॥२५॥

हे राजन! मैं इन्द्र हूँ तुम्हें क्या वस्तु दूँ। मैं सर्वलोकेश्वर हूँ और तुम्हारी रक्षा के लिये आया हूँ।

अम्बरीषस्तु तं  दृष्टुा  शक्रमैरावतस्थितम् ।
उवाच वचनं धीमान् विष्णुभक्तिपरायणः ॥२६॥
नाहं त्वामभिसन्धाय  तप  आतिष्ठवानिह ।
त्वया दत्तश्च नेच्छामि गच्छ शक्र यथासुखम् ।। २७ ।।
मम नारायणो  नाथस्त्वां  नस्तोष्येऽमराधिप !
ब्रजेन्द्र  मा  कृथास्त्वत्र  ममाश्रमविलोपनम् ॥२८ ॥

ऐरावत पर स्थित उन इन्द्र को देखकर  विष्णु भक्ति-परायण राजा अम्बरीष ने यह वचन कहा 'मैंने आप के उद्देश्य से तप नहीं किया है। आप द्वारा दी हुई वस्तु की मुझे इच्छा नहीं है। अतः हे शक। आप सुख पूर्वक गमन कीजिये। मेरे स्वामी तो नारायण है। हे अमरों के अधिपति  मै आप से कुछ नहीं चाहता, अतः आप पधारिये। मेरे इस आश्रम में अपने समय को व्यर्थ मत कीजिये।

ततः   प्रहस्य  भगवान्  स्वरूपमकरोद्धरिः ।
शार्ङ्गचक्र गदापाणिः शङ्खहस्तो जनार्दनः॥२६॥
गरुडोपरि   विश्वात्मा   नीलचल   इवापराः । 
देवगन्धर्वसंधैक्ष      स्तुयमानः     सामंततः ।.३०.. 
प्रमम्य   राजा  संतुष्टस्तुष्टाव   गरुड़ध्वजम् ।
प्रसीद  लोकनाथस्त्वं   मम  नाथ  जनार्दनः॥३१॥

तब हँस कर भगवान् ने अपना स्वरूप प्रकट किया । शार्क चक्र, गदा और शङ्ख हाथ में लिये हुये, देवों और गन्धवों के समूहों द्वारा सब ओर से स्तुति को प्राप्त, गरुड़ पर स्थित, दूसरे नीलाचल के समान सुशोभित विश्वात्मा जनार्दन को देख कर राजा ने प्रणाम किया और उन गरुड़ध्वज को स्तुति से सन्तुष्ट करने लगे।

कृष्ण   कृष्णजगन्नाथ  सर्वलोक  नमस्कृत। 

कृष्ण   कृष्णजगन्नाथ  सर्वलोक  नमस्कृत। 
त्वमादिस्त्वमनादिस्त्वमनन्तः चपुरुषः प्रभुः॥३२॥

मेरे नाथ, जनार्दन, लोकनाथ ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। हे कृष्ण, हे कृष्ण,हे जगन्नाथ, हे सर्वलोकनमस्कृत ! आप आदि, अनादि, अनन्त पुरुष और प्रभु हैं।

अप्रमेयो  विभुर्विष्णुर्गोविन्दः  कमलेक्षणः । 
महेश्वरांशजो मध्यः पुष्करः  खगमः  खगः॥३३॥ 
कव्यवाहः  कपालीत्वं  हव्यवाहः प्रभञ्जनः। 
आदिदेवः क्रियानन्दः परमात्मनि संस्थितः॥३४॥ 

आप अप्रमेय, विभु विष्णु, गोविन्द,कमललोचन, महेश्वरांशज, मध्य, पुष्कर, और अनन्त पुरुष हैं। आप कव्वाह, कपाली, हव्यवाह, प्रभञ्जन हैं। आप आदिदेव, क्रियानन्द परमात्मा में स्थित हैं।

त्वां प्रपनोऽस्मि गोविन्द पाहिमां पुष्करेक्षण ।
नान्या  गतिस्त्वदन्या  मे  त्वामेव शरणं गतः॥३५॥

हे गोविन्द में आपकी शरण में हूँ। हे पुष्करेक्षण मेरी रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त मेरी अन्य गति नहीं है मैं आपकी शरण में हूँ।

तमाहभगवान् विष्णुः किंते हृदिचिकिर्षितम् ।
तत्सर्व  सम्प्रदास्यमि  भक्तोऽसि मम  सुव्रत ॥३६॥
भक्तप्रियोऽस्मि  सततं   तस्माद्दातुमिहागतः ।
अम्बरीषस्तु  तत् श्रुत्वा  हर्षगद् गदया गिरा ॥३७॥

तब भगवान् विष्णु ने पूछा हे सुव्रत ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? तुम मेरे भक्त हो, मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा मैं निरन्तर भक्तप्रिय हूँ। इसी कारण मैं तुमको यथेच्छ फल देने के लिये आया हूँ।तुम मेरे भक्त हो' यह वचन सुन कर अम्बरीष हर्षगद्गद हो गये ।

प्रोवाच    परमात्मानं    नारायणमनामयम् ।
त्वयि विष्णौ परानन्दे नित्यं मे वर्त्ततां मतिः॥३८॥
भवेयं  त्वत्परोनित्यं  वाङ्मनः  कायकर्मभिः ।
पालयिष्यामिपृथिवीं कृत्वावै वैष्णवंजगत् ॥३९॥
यज्ञहोमार्चनैश्चैव   तर्पिष्यामि    सुरोत्तमान् । 
वैष्णवान पालष्यामि हनिष्यामि चशात्रवान्॥४०॥

और परमात्मा अनामय नारायण से बोले हे विष्णु ! मेरी आप में निरन्तर भक्ति हो मन,वचन, कर्म से मैं नित्य आपकी सेवा करके पृथिवी को विष्णुभक्त बना दूँगा। यज्ञ, होम और अर्चना से देवों को तृप्त कर, वैष्णवों का पालन तथा असुरों का हनन करूँगा।

प्रत्युवाच नृपोत्तमम् एवमस्तु
तवेच्छा वै चक्रमेतवित्सुदर्शनाम् ॥४१॥
पुरा रुद्राफीन लब्धं वै दुर्लभं मया । 
ऋषिशिपादिकं दुःख रोग रोग और ॥४२॥

राजा के इस प्रकार कहने पर भगवान् ने उन नृप श्रेष्ठ से कहा 'जैसी तुम्हारी इच्छा है वैसा ही होगी यह सुदर्शन चक्र,जिसे पहले हमने रुद्र के प्रभाव से प्राप्त किया था,ऋषि शाप,दुःख,शत्रु और रोगादि तुम्हारे दुःखों का हनन करेगा।' ऐसा कह कर वे अन्तर्धान हो गये।

निहनिष्यति ते दुःखमित्युक्त्वान्तरधीयत ।
ततः प्रमम्य मुदितो राजा नारायणं प्रभुम् ॥४३॥
प्रविश्य नगरीं दिव्यामयोध्यां पर्यपालयत् ।
ब्राह्मणार्दीस्तथावर्णान् स्वेस्वे कर्मण्ययोजयत्
॥४४॥

तब प्रसन्न होकर राजाने नारायण प्रभु को प्रणाम किया और दिव्य अयोध्या नगरी में प्रवेश कर उसका पालन करने लगे। उन्होंने ब्राह्मण आदि वर्णों को भी अपने-अपने कर्मों में लगा दिया।

नारायणपरो नित्यं विष्णु भक्तनकल्मषां ।
पालयामास हृष्टात्मा विशेषेण जनाधिपः ॥४५॥

वे राजा नित्य नारायण में तत्पर हो विष्णुभक्तों का विशेष रूप से पालन करने

अश्वमेधशतैरिष्ट्वा वाजपेयशतानि च।
पालयामास पृथिवीं सागरावरणामिमाम् ॥४६॥

उन्होंने सौ अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ किया और सागरपर्यन्त पृथिवी का पालन करने लगे।

गृहे   गृहे   हरिस्तस्थौ  वेदघोषो   गृहे   गृहे
नामघोषो     हरेश्चैव     यज्ञघोषस्थैव     च ॥४७॥

उस समय घर-घर में श्रीहरि की प्रतिष्ठा और वेदघोष तथा प्रत्येक घर में हरि के नाम का उच्चारण और यज्ञघोष होता था।

अभवन्नृपशार्दूले  तस्मिन्  राज्यं   प्रशासति ।
नासरस्या नातृणा भुमिर्न दुर्भिक्षादिभिर्युता ॥४८॥
रोगहीना   प्रजा   नित्यं  सर्वोपद्रव  वर्जिता ।
अम्बरीषो महातेजाः पालयामास मेदिनीम् ॥४९॥
सवैमहात्मासततं चरक्षितः सुदर्शनेनप्रिय दर्शनेन।
शुभां समुद्रावधिसन्ततां महीं सुपालयामास 
महीमहेन्द्रः॥५०॥

उन नृपशार्दूल के राज्य में इसी प्रकार के कार्य होते थे। राज्य की भूमि तृण और अन्न से युक्त रहती थी तथा दुर्भिक्ष आदि का नाम भी नहीं था। उनकी प्रजा नित्य रोगहीन और हर प्रकार के उपद्रवों से रहित थी।

इस प्रकार महातेजस्वी अम्बरीष पृथिवी का पालन करते थे। वे महात्मा सुदर्शन चक्र से भली प्रकार रक्षित होकर चारों समुद्र पर्यन्त पृथिवी का अच्छी तरह पालन करने लगे।

आपका मंगल हो, प्रभु कल्याण करे

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