दीपदानमाहात्म्यम्- दीपदान क्यों
भविष्यपुराण के ब्राह्मखण्ड के अनुसार दीपदानमाहात्म्य पर ब्रह्म देव और यमराज की वार्तालाप दीपदान क्यों करना चाहिए?
संक्रोशमानान्संक्षुब्धानुवाच यमकिङ्करः ॥१॥
बिलापैरलमत्रेति किं वो विलपिते फलम् ।
यत्प्रमादादिभिः पूर्वमात्मायं समुपेक्षितः ॥ २॥
पूर्वमालोचित नैतत्कथमन्ते भविष्यति ।
इदानीं यातनां भुङ्क्ष्वं किं विलाएं करिष्यथ॥ ३॥
देहो दिनानि स्वल्पानि विषयाश्चातिदुर्बलाः।
एतत्को न विजानाति येन यूयं प्रमादिनः ॥ ४॥
यत्प्रमादादिभिः पूर्वमात्मायं समुपेक्षितः ॥ २॥
पूर्वमालोचित नैतत्कथमन्ते भविष्यति ।
इदानीं यातनां भुङ्क्ष्वं किं विलाएं करिष्यथ॥ ३॥
देहो दिनानि स्वल्पानि विषयाश्चातिदुर्बलाः।
एतत्को न विजानाति येन यूयं प्रमादिनः ॥ ४॥
जन्तुर्जन्मसहस्त्रेभ्य एकस्मिन्मानुषो यदि ।
स तत्राप्यतिमूढात्मा किं भोगानभिधावति ॥ ५ ॥
पुजदार गृहक्षेत्र हिताय सततोद्यताः।
न जानन्ति ततो मूढाः स्वल्पमप्यात्मनो हितम्॥ ६॥
ब्रह्मदेव कहते हैं- दुष्पार अन्धतमस् नरक में गिरे पतितों पर आक्रोश से संक्षुब्ध स्वर में यमदूतों ने कहा- यहाँ रुदन करना बंद करो।
स तत्राप्यतिमूढात्मा किं भोगानभिधावति ॥ ५ ॥
पुजदार गृहक्षेत्र हिताय सततोद्यताः।
न जानन्ति ततो मूढाः स्वल्पमप्यात्मनो हितम्॥ ६॥
ब्रह्मदेव कहते हैं- दुष्पार अन्धतमस् नरक में गिरे पतितों पर आक्रोश से संक्षुब्ध स्वर में यमदूतों ने कहा- यहाँ रुदन करना बंद करो।
इसका कोई फल नहीं होगा। जब तुम लोगों ने पहले प्रमाद से अपना उद्धार पाने हेतु कुछ विचार नहीं किया, उसे उपेक्षित किया, तब अब यहाँ क्या हो सकता है? इस समय यातनाओं को भोगों, क्यों विलाप करते हो।
दैहिक जीवन अत्यन्त स्वल्प होता है, विषय आदि अत्यन्त सारहीन होते हैं। इसे कौन नहीं जानता, तब भी तुम लोगों की तरह, लोग प्रमाद करते रहते है। हजारों जन्मों में भ्रमण करके तब कहीं मनुष्य जन्म मिलता है, लेकिन मानव अत्यन्त मूढत्व के कारण भोगों की ओर दौड़ता रहता है। वह पुत्र स्त्री, पर, खेत आदि के रक्षार्थ निरन्तर लगा रहता है, लेकिन जीवात्मा के हित को नहीं जानता। तभी उसे मूड़ कहते है।।१-६॥
वञ्चितोऽहं मया लब्धमिदमस्मादुपागतम् ।
न वेत्ति मोहितः कश्चित्प्रक्रान्तनरको नरः ॥ ७ ॥
न वेत्ति सूर्यचन्द्रादीनकालमात्मानमेव च ।
साक्षिभूतानशेषस्य शुभस्येहाशुभस्य च ॥ ८ ॥
जन्मान्यन्यानि जायन्ते पुत्रदारादिदेहिनाम् ।
यदर्थं यत्कृतं कर्म तस्य जन्मशतानि तु ॥ ९ ॥
पृथिवी पर जीवन रहते वह मोहग्रस्त के कारण यह विचार नहीं करता कि मैं (भोगों के कारण) वंचित हो रहा हूँ। मुझे परलोक में इन सबके परिणाम में क्या मिलेगा? वह मोह के कारण यह नहीं सोच पाता कि उसे बदले में नरक जाना है। वह साक्षीभूत शुभ-अशुभ कर्मों के साक्षी सूर्य-चन्द्र-काल-आत्मा को भी विस्मृत कर देता है। ये पुत्र-स्त्री आदि अन्य जन्म में अन्य को ही प्राप्त होंगे, तथापि उनके ही लिये मैंने अपना जीवन गवाँ दिया, तभी मुझे अनेक जन्म, सैकड़ों जन्म लेना पड़ रहा है। जीव यह कभी नहीं सोचता ॥७९॥
अहो मोहस्य माहात्म्यं ममत्वं नरकेष्वपि ।
क्रन्दते मातरं तात पीड्यमानोऽपि यत्स्वयम् ॥ १० ॥
वञ्चितोऽहं मया लब्धमिदमस्मादुपागतम् ।
न वेत्ति मोहितः कश्चित्प्रक्रान्तनरको नरः ॥ ७ ॥
न वेत्ति सूर्यचन्द्रादीनकालमात्मानमेव च ।
साक्षिभूतानशेषस्य शुभस्येहाशुभस्य च ॥ ८ ॥
जन्मान्यन्यानि जायन्ते पुत्रदारादिदेहिनाम् ।
यदर्थं यत्कृतं कर्म तस्य जन्मशतानि तु ॥ ९ ॥
पृथिवी पर जीवन रहते वह मोहग्रस्त के कारण यह विचार नहीं करता कि मैं (भोगों के कारण) वंचित हो रहा हूँ। मुझे परलोक में इन सबके परिणाम में क्या मिलेगा? वह मोह के कारण यह नहीं सोच पाता कि उसे बदले में नरक जाना है। वह साक्षीभूत शुभ-अशुभ कर्मों के साक्षी सूर्य-चन्द्र-काल-आत्मा को भी विस्मृत कर देता है। ये पुत्र-स्त्री आदि अन्य जन्म में अन्य को ही प्राप्त होंगे, तथापि उनके ही लिये मैंने अपना जीवन गवाँ दिया, तभी मुझे अनेक जन्म, सैकड़ों जन्म लेना पड़ रहा है। जीव यह कभी नहीं सोचता ॥७९॥
अहो मोहस्य माहात्म्यं ममत्वं नरकेष्वपि ।
क्रन्दते मातरं तात पीड्यमानोऽपि यत्स्वयम् ॥ १० ॥
एवमाकृष्टचित्तानां विषयैः स्वादुतर्पणैः।
नृणां न जायते बुद्धिः परमार्थविलोकिनी ॥ ११॥
तथा च विषयासङ्गे करोत्यविरतं मनः ।
को हि भारो रवेर्नाम्नि जिह्वायाः परिकीर्तने ॥ १२॥
यह मोह का ही प्रभाव जानना चाहिये कि नरकवासी होकर भी इनके लिये इतनी ममता है। यातनाभोग के बावजूद उनको तात-माता आदि कहकर आवाज देता रहता है। सभी विषय के प्रति आकृष्ट चित्त मनुष्य में परमार्थ का अवलोकन करने वाली बुद्धि का उदय कदापि नहीं होता। उसका मन सतत विषय मंग के लिये उद्यत रहता है। वह विषयों से हटना नहीं चाहता। तभी तो उसे जिह्वा से सूर्यदेव का नामोच्चारण करना भारी लगता है (अर्थात् वह इसी कारण मूर्यदेव की भक्ति से विमुख रहता है )॥ १०-१२।।
नृणां न जायते बुद्धिः परमार्थविलोकिनी ॥ ११॥
तथा च विषयासङ्गे करोत्यविरतं मनः ।
को हि भारो रवेर्नाम्नि जिह्वायाः परिकीर्तने ॥ १२॥
यह मोह का ही प्रभाव जानना चाहिये कि नरकवासी होकर भी इनके लिये इतनी ममता है। यातनाभोग के बावजूद उनको तात-माता आदि कहकर आवाज देता रहता है। सभी विषय के प्रति आकृष्ट चित्त मनुष्य में परमार्थ का अवलोकन करने वाली बुद्धि का उदय कदापि नहीं होता। उसका मन सतत विषय मंग के लिये उद्यत रहता है। वह विषयों से हटना नहीं चाहता। तभी तो उसे जिह्वा से सूर्यदेव का नामोच्चारण करना भारी लगता है (अर्थात् वह इसी कारण मूर्यदेव की भक्ति से विमुख रहता है )॥ १०-१२।।
वर्तितैलेऽल्पमूल्ये च यद्धर्त्तिलभ्यते सुधा।
अतो वै कतरो लाभः कातश्चिन्ता भवेत्तदा ॥ १३ ॥
येनायतेषु हस्तेषु स्वातन्त्र्ये सति दीपकः।
महाफलो भानुगृहे न दत्तो नरकापहः ।। १४।।
नरो विलपते किञ्चिदिदानीं दृश्यते फलम्।
अस्वातन्त्र्ये विलपतां स्वातन्त्र्ये सति मानिनाम् ॥ १५॥
दीपक का तेल तथा उसको बत्ती अलान्त सुलभ वस्तु है। तेल-बत्ती के संयोग से युक्त दीपक प्रदान करने से सुधा जैसा फल मिलता है। इसको (सूर्यदेव को प्रदान करने पर) देने का कितना लाभ है, जीवितावस्था में तुमको इसका कभी विचार नहीं आया।
इसी कारण से स्वतन्त्र स्थिति में (जीवन ) तुमने सूर्यमन्दिर में अपने हाथों से दीपदान नहीं किया जो महाबलशाली नरको का नाशक है और तुम्हारे ऐसे लोग जो दीपदान नहीं करते यहाँ आकर रो रहे हैं, जिसे हम भी देख रहे हैं। अतः यह स्पष्ट है कि जीव परतन्त्रता मे रुदन करता है। स्वतन्त्रता में अभिमानी हो जाता है।।१३-१५॥
अवश्य पातिनः प्राणा भोक्ता जीवोऽप्यहर्निशम् ।
दत्तं च लभते भोक्तं कामयन्विषयानपि ॥ १६ ॥
अवश्य पातिनः प्राणा भोक्ता जीवोऽप्यहर्निशम् ।
दत्तं च लभते भोक्तं कामयन्विषयानपि ॥ १६ ॥
एतत्स्थानं दुष्कृतैर्वा युक्तं चाद्य मयेक्षितम् ।
इदानी कि विलापेन सहध्वं यदुपागतम् ॥ १७॥
इदानी कि विलापेन सहध्वं यदुपागतम् ॥ १७॥
यद्येतदनभीष्टं वो यदुःखं समुपस्थितम् ।
तदद्भुतमतिः पापे न कर्तव्या कदाचन ॥ १८॥
तदद्भुतमतिः पापे न कर्तव्या कदाचन ॥ १८॥
कृतेऽपि पापके कर्मण्यज्ञानादघनाशनम्।
कर्तव्यमनवच्छिन्नं पूजनं सवितुः सदा ॥ १९॥
प्राण तो एक दिन साथ छोड़ देते हैं। पाप-पुण्य का भोक्ता जीव रह जाता है। दान प्रदान करने पर ही इच्छित भोग मिलता है। यह हमें सम्यक रूप से ज्ञात है कि नरक तो पापों का परिणाम है। यहाँ रोने से क्या होना है? जो सामने हैं, उसे सहन करो।
कर्तव्यमनवच्छिन्नं पूजनं सवितुः सदा ॥ १९॥
प्राण तो एक दिन साथ छोड़ देते हैं। पाप-पुण्य का भोक्ता जीव रह जाता है। दान प्रदान करने पर ही इच्छित भोग मिलता है। यह हमें सम्यक रूप से ज्ञात है कि नरक तो पापों का परिणाम है। यहाँ रोने से क्या होना है? जो सामने हैं, उसे सहन करो।
यदि तुम अनिच्छित प्राप्त होने वाले इस दुःख को नहीं चाहते होते, तब जीवित स्थिति में पाप कार्य कभी न करते। यदि कभी कुछ पाप अज्ञानता से हो भी जाते, तब पापनाशक देवता सविता को सदैव अर्चना करते रहते!॥१६-१९॥
भी भोः साधो कृतं कर्म यदस्माभिस्तदुच्यताम् ।
ब्रह्मदेव कहते हैं- हे अच्युत आपको दीपदान का तथा दोपहरण का फल कहा। इसके दान से पुण्य तथा हरण से पाप फलो को भी बता दिया। वैसे तो दीपदान की सर्वत्र प्रशंसा की गयी है तथापि जगत् धाता भास्करदेव के देवालय में दीपदान का अत्यधिक फल होता है।
नारकास्तद्वचः श्रुत्वा तमूचुरतिदुःखिताः ।श्रुत्क्षामकण्ठास्तृट्तापविसंस्फुटिततालुकाः ॥ २०॥
भी भोः साधो कृतं कर्म यदस्माभिस्तदुच्यताम् ।
नरकस्थैर्विपाकोऽयं भुज्यते यत्सुदारुणः ॥ २१॥
ब्रह्मदेव कहते हैं- उन क्षुधा तथा प्यास से सन्तप्त स्फुटित तालु वाले नारकीय लोगों ने यमदूतों की बातों को सुनकर अत्यन्त दुःख से कहा – हे साधु कृपया आप हमारे द्वारा किये उन कर्मों को बतायें, जिसके कारण हम नरक का दारुण फल भोग रहे हैं। २०-२१॥
युष्माभिर्यौवनोन्मादान्मुदितैरविवेकिभिः ।
घृतलोभेन मार्तण्डगृहाद्दीप: पुरा हृतः ॥ २२॥
तेनास्मिन्नरके घोरे क्षुत्तृष्णापरिपीडिताः।
भवन्तः पतितास्तीव्रे शीतवादविदारिताः ॥ २३॥
ब्रह्मदेव कहते हैं- उन क्षुधा तथा प्यास से सन्तप्त स्फुटित तालु वाले नारकीय लोगों ने यमदूतों की बातों को सुनकर अत्यन्त दुःख से कहा – हे साधु कृपया आप हमारे द्वारा किये उन कर्मों को बतायें, जिसके कारण हम नरक का दारुण फल भोग रहे हैं। २०-२१॥
युष्माभिर्यौवनोन्मादान्मुदितैरविवेकिभिः ।
घृतलोभेन मार्तण्डगृहाद्दीप: पुरा हृतः ॥ २२॥
तेनास्मिन्नरके घोरे क्षुत्तृष्णापरिपीडिताः।
भवन्तः पतितास्तीव्रे शीतवादविदारिताः ॥ २३॥
--------अम्बरीष की नारायण से वर प्राप्ति --------
यमदूत कहते हैं- पूर्वकाल में तुम लोगों ने यौवन के उन्माद से मुग्धावस्था में सूर्य मन्दिर के घृत दीपों का घृत हरण करने की कामना से दीपकों का हरण किया था। सभी तुम लोग भूख-प्यास तथा शीतल वायु से कष्ट पा रहे हो। तभी तुम लोगों को यह घोर दुःखप्रद नरक मिला ।। २२-२३॥
एतत्ते दीपदानस्य प्रदीपहरणस्य च ।
पुण्यं पापं च कथितं भास्करायतनेऽच्युत ॥ २४ ॥
सर्वत्रैव हि दीपस्य प्रदान कृष्ण शस्यते ।
विशेषेण जगद्धातुर्भास्करस्य निवेशने ॥ २५॥
येऽन्धा मुका बधिरा निर्विवेका हीनास्तैस्तैर्दानसाधनैर्वृष्णिवीर तैस्तैर्दींपाः साधुलोकप्रदत्ता देवागारादन्यतः कृष्णनीताः॥२६॥
यमदूत कहते हैं- पूर्वकाल में तुम लोगों ने यौवन के उन्माद से मुग्धावस्था में सूर्य मन्दिर के घृत दीपों का घृत हरण करने की कामना से दीपकों का हरण किया था। सभी तुम लोग भूख-प्यास तथा शीतल वायु से कष्ट पा रहे हो। तभी तुम लोगों को यह घोर दुःखप्रद नरक मिला ।। २२-२३॥
एतत्ते दीपदानस्य प्रदीपहरणस्य च ।
पुण्यं पापं च कथितं भास्करायतनेऽच्युत ॥ २४ ॥
सर्वत्रैव हि दीपस्य प्रदान कृष्ण शस्यते ।
विशेषेण जगद्धातुर्भास्करस्य निवेशने ॥ २५॥
येऽन्धा मुका बधिरा निर्विवेका हीनास्तैस्तैर्दानसाधनैर्वृष्णिवीर तैस्तैर्दींपाः साधुलोकप्रदत्ता देवागारादन्यतः कृष्णनीताः॥२६॥
ब्रह्मदेव कहते हैं- हे अच्युत आपको दीपदान का तथा दोपहरण का फल कहा। इसके दान से पुण्य तथा हरण से पाप फलो को भी बता दिया। वैसे तो दीपदान की सर्वत्र प्रशंसा की गयी है तथापि जगत् धाता भास्करदेव के देवालय में दीपदान का अत्यधिक फल होता है।
हे वृष्णिवंश के वीर ! संसार में जितने अंध, बधिर, मूक, अविवेको तथा दान साधनरहित मनुष्य लक्षित होते हैं, उन्होंने देवालयों में प्रदत्त दीपक का हरण अवश्य किया है। २४-२६॥
★★★